चैत्र शुक्ल द्वितीया को सिंजारा होता है।ईसरजी पावणां आते हैं।जो जंवारा की कुण्डी होती है उसमें एक में ईसरजी,एक में गौरां बाई तैयार करते हैं।इसके लिये बूर की झाड़ू के दो जगह पांच सात तिनकों को एक साथ लेकर एक में सफ़ेद कपड़ा, दूसरे में लाल कपड़ा मोली सें तिनकों के सिरों पर बांधते हैं।साथ में थोड़े थोड़े बाल भी रखते हैं। फ़िर इनको दोनों कुंडी में बीच में रोप देते हैं।जंवारा के कुंकुम का छांटा देते हैं।मिठाइ, नैवेद्य सें ईसर गौर को जिमाते हैं। मेंहदी लगाते हैं।गीत गाते हैं।इस प्रकार गौर का सिंजारा करते हैं।बहू,बहन बेटियों को कपड़े लत्ते, गहने, मिठाई, रूपये देते हैं।
चैत्र शुक्ल तृतीया को बड़ी गौर होती है।इस दिन सभी सुहागिनें, कुंवारी लड़कीयां गौर माता की पूजा करती है।इस दिन गौर माता के मुख्य रुप सें ढोकले का भोग लगता है।बाजरी या गेहूं के ढोकले व फल बनाये जाते हैं।कुछ लोग पानी में बूर लगाकर बफाकर बनाते हैं कुछ लोग तेल में तलकर भी बनाते हैं। अपनी सुविधानुसार बना सकते हैं।सोलह दिन पूजने वाली कुंवारी लड़कियों के बत्तीस फल, शादी होने के बाद सोलह फल व अजूणा होने के बाद आठ फल बनते हैं। अपनी अपनी गिनती के आधे फल पूजा के समय गौर माता को चढ़ाते हैं।बाद में पूरी पूजा होने के बाद अपने बचे हुए फल गौर माता को दे देते हैं व चढ़ायें हुये फलों में सें अपनी गिंनती जितने फल ले लेते हैं ।जितनी गिनती के फल बनाते हैं,उतनी गिनती के दंतुन् गौर माता के चढ़ाते हैं। गौर जंवारा की पूजा करके,जंवारा निकाल कर उससें ही पूजी जाती है।थोड़े जंवारे हाथों
की चूड़ीयों में,बालों में बांधते हैं।थोड़े जंवारे गहनों के डिब्बे में,गल्ले में भी रखते हैं।इस दिन एक समय भोजन किया जाता है।
शाम के समय,गौर बन्दोरा करके गौर की विदाई,भोलावणी करते हैं। लकड़ी के ईसर गौर की पूजा करके, भोग लगाकर ,सीख देकर कुएं या तालाब पर ले जाते हैं ।साथ में दायजा की छाबड़ी,आरता की थाली भी ले जाते हैं।दायजा तो वहीं छोड़ दिया जाता है,आरता की थाली खाली कर लेते हैं।दीपक को तोड़कर उसके टुकड़े कुछ घर पर लाकर अनाज में रखते हैं।घर वापस आते समय गौर माता के घूंघट से मुंह को ढंककर लाते हैं।इस प्रकार गौर माता की विदाई हो जाती है
विदाई के गीत गाये जाते हैं।
अजूणा होता है तब सोलह श्रृंगार,सोलह जगह, रूपये मन अनुसार,एक साड़ी का बेस श्रंगार सहित गौर माता का,एक सासूजी का,एक बेटी का,जंवाई के कपड़े या लीफाफा, मिठाई सब पिहर सें आते हैं।सोलह सुहागनों को दांतुन देकर पहले न्योता दिया जाता है ।फिर सबके साथ या किसी एक के साथ ही सोलह जनों की बारी की ,सोलह बार गौर पूजी जाती है।विनायक जी को जिमाकर, रूपए देकर साख भराई जाती है।
गणगौर सें पहले,सूरज रोटा का व्रत व अजूणा होता है। रविवार के दिन अलूणा आटा ओसण कर ,रोटी बनाकर बीच में छेद करते हैं। रोटी पूरी नहीं सेंकते। फ़िर रोटी को कपड़े में लपेटकर ,सूरज के सामने धरती पर गौबर का चोका लगाकर, पानी की धार देते हुए। कुंकुम चावल,मोली चढ़ाकर पूजा करते हैं,कहानी सुनते हैं। कपड़े में लपेटे हुए ही,रोटी के छेद में सें सूरज को दिखाते हैं।व साथ में बोलते जाते हैं,सूरज दिख्यो,दिख्यो जिस्यो ही टूठ्यो।पूरा बोलकर,बचे हुए पानी सें एक रोटिया बनाते हैं।आजकल तो सब आलू की सब्जी भी खाने लगे हैं, पहले के जमाने में नमक नहीं देते थे।जितना खा सकते हैं उतना खा लेते हैं, दूसरी कुछ भी चीज़ नहीं खाते।बाकी का रख देते हैं। दूसरे दिन थोड़ा सा खा लेते हैं बाकी का गाय को दे देते हैं। किसी और को खाने नहीं दिया जाता। इसके अजूणा में आठ कुंवारी लड़कियों को खाना खिलाकर रूपये दिये जाते हैं।विनायक जी तो सभी अजूणा में होते ही हैं।
जिसका अजूणा हो जाता है वो फिर लास्ट दिन ही गौर पूजते हैं।
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