श्री
गजल गीता
प्रथमहिं गुरु को शीश नवाऊँ।
हरि चरणों में ध्यान लगाऊं।।
गजल सुनाऊं अद्भुद यार।
धारण सें हो बेड़ा पार।।
अर्जुन कहे सुणो भगवाना।
अपने रूप बताये नाना।।
उनका मैं कछु भेद ना जाना।
किरपा कर फिर कहो सुजाना।।
जो कोई तुमको नित उठ ध्यावे।
भक्तिभाव सें चित्त लगावे।।
रात दिवस तुमरे गुण गावे।
तुमसें दूजा मन नहीं भावे।।
तुमरा नाम जपे दिन रात।
औऱ करे नहीं दूजी बात।।
दूजा निराकार को ध्यावे।
अक्षर अलख अनादि बतावे।।
दोनों ध्यान लगाने वाला।
उनमें कुंण उत्तम नन्दलाला।।
अर्जुन सें बोले भगवान।
सुन प्यारे कछु देकर ध्यान।।
मेरा नाम जपै जपवावे।
नेत्रों में प्रेमाश्रु छावे।।
मुझ बिन और कछु नहीं चावे।
रात दिवस मेरो गुण गावे।।
सुनकर मेरा नामोच्चार।
उठे रोम तन बारम्बार।।
जिनका क्षण टूटे नहीं तार।
उनकी श्रद्धा अटल अपार।।
मुझमें जुड़कर ध्यान लगावे।
ध्यान समय विह्लल हो जावे।।
कण्ठ रुके बोला नहीं जावे।
मन बुद्धि मेरे मांही समावे।।
लज्जा भय रु बिसारे मान।
अपना रहे न तन का ज्ञान।।
ऐसे जो मन ध्यान लगावे।
सौ योगिन में श्रेष्ठ कुहावे।।
जो कोई ध्यावे निर्गुण रूप।
पूर्ण ब्रम्ह औऱ अचल अनूप।।
निराकार सब बेद बतावे।
मन बुद्धि जहां थाह न पावे।।
जिसका कबहुँ न होवे नाश।
व्यापक सबमें ज्यों आकाश।।
अटल अनादि आनन्दघन।
जाने बिरला योगीजन।।
ऐसा करे निरन्तर ध्यान।
सबको समझे एक समान।।
मन इन्द्रिय अपने वश राखे।
विषयन के सुख कबहुँ न चाखे।।
सब जीवों के हित में रत।
ऐसा उनका सच्चा मत।।
वह भी मेरे ही को पाते।
निश्चय परम गति को जाते।।
फल दोनों का एक समान।
किंतु कठिन है निर्गुण ध्यान।।
जब तक है मन में अभिमान।
तब तक होना मुश्किल ध्यान।।
जिनका है निर्गुण में प्रेम।
उनका दुर्घट साधन नेम।।
मन टिकने को नहीं अधार।
इससें साधन कठिन अपार।।
सगुण ब्रम्ह का सुगम उपाय।
सो मैं तुमको दिया बताय।।
यज्ञ दानादि कर्म अपारा।
मेरे अर्पण कर कर सारा।।
अटल लगावे मेरा ध्यान।
मुझको समझे प्राण समान।।
सब दुनियां सें तोड़े प्रीत।
मुझको समझे अपना मीत।।
प्रेम मगन हो अति अपार।
समझे ये संसार असार।।
जिनका मन नित मुझमें यार।
उनसें करता मैं अति प्यार।।
केवट बनकर नाव चलाऊँ।
भवसागर सें पार लगाऊँ।।
ये है सबसें उत्तम ज्ञान।
इससें कर तूं मेरा ध्यान।।
फिर होवेगा मोहि समान।
यह कहना मेरा सच्चा जान।।
जो चाले इसके अनुसार।
वह नर हो भव सागर पार।।
।। हरि ॐ तत्त सत ।।
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